
दिल्ली, एक ऐसा शहर जो समय के साथ बदलता रहा है, मेट्रो रेल से लेकर मॉल्स तक, हर दिशा में इसका विकास हुआ है। लेकिन दिल्ली का पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन, 1947 की तरह अब भी इतिहास की कई घटनाओं का गवाह बना हुआ है। एक समय ऐसा था जब यह स्टेशन हिंदू और सिख शरणार्थियों का पहला ठिकाना बना, जो पाकिस्तान से अपनी जान बचाकर यहाँ पहुँचते थे। स्टेशन की दीवारें और वहाँ की घड़ी उन कठिन दिनों की साक्षी हैं, जब हर दिन यहाँ अनगिनत शरणार्थियों की भीड़ उमड़ती थी।
बंटवारे का दर्द और दिल्ली जंक्शन की भूमिका
1947 का बंटवारा भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास की सबसे दर्दनाक घटनाओं में से एक था। यह वही समय था जब लाखों हिंदू और सिख शरणार्थी पाकिस्तान से अपनी जान बचाकर भारत आए। पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन उन लोगों का सबसे पहला पड़ाव बना, जिन्होंने अपने घर-परिवार, जमीन-जायदाद सब कुछ छोड़कर केवल अपनी जान बचाई। यहाँ आकर उन्होंने नई जिंदगी की शुरुआत की, मगर उनके मन में बंटवारे का दर्द हमेशा के लिए बस गया।

मिल्खा सिंह और बंटवारे की यादें
मशहूर धावक मिल्खा सिंह की जिंदगी भी इसी दर्द का हिस्सा रही। केवल 16 साल की उम्र में उन्होंने अपने कई परिजनों को खो दिया और अकेले-अनाथ दिल्ली के इस रेलवे स्टेशन पर उतरे। उनके जीवन की यह त्रासदी उनकी आत्मकथा और इंटरव्यूज़ में अक्सर सुनाई देती है। उनके पिता का अंतिम शब्द “भाग मिल्खा भाग” न केवल उनके लिए बल्कि उस समय के सभी शरणार्थियों के लिए जीवन की कड़वी सच्चाई थी।
मिल्खा सिंह पहले अपने गांव कोट अद्दू से मुल्तान, फिर फिरोजपुर होते हुए दिल्ली पहुंचे थे। बंटवारे के समय की उनकी दर्दनाक यादें आज भी सुनने वालों को भावुक कर देती हैं। दिल्ली में उनका उद्देश्य अपनी बिछड़ी हुई बहन हुंडी को ढूंढना था, जिसे वे यहाँ आने के बाद पाने में सफल रहे।

अमृतसर आ गया है – भीष्म साहनी की कहानी
भारतीय साहित्यकार भीष्म साहनी की प्रसिद्ध कहानी ‘अमृतसर आ गया है’ ने बंटवारे के दौरान शरणार्थियों की त्रासदी को बेहद प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया। इस कहानी में एक ट्रेन यात्रा के माध्यम से बंटवारे की भयानकता और असहनीय पीड़ा का वर्णन है। भीष्म साहनी और उनका परिवार रावलपिंडी से दिल्ली आया था, और उन्होंने इस यात्रा के दौरान कई बार मौत को बहुत करीब से देखा था। उनका कहना था कि रावलपिंडी से लाहौर के बीच का सफर कत्लेआम की खबरों से भरा हुआ था।

शरणार्थियों की भीड़ और दिल्ली का बदलता मिजाज
दिल्ली की तरफ आ रही रेलगाड़ियों पर निर्जन स्थानों पर हमले हो रहे थे। वाईपी आनंद, जो रेलवे बोर्ड के चेयरमेन रहे, ने भी इस त्रासदी को अपने परिवार के साथ महसूस किया। वे स्यालकोट से जम्मू की यात्रा कर रहे थे, जहाँ उन्हें दंगाइयों का सामना करना पड़ा और उनके परिवार के कई सदस्य इस हिंसा में मारे गए। इस भयानक सफर के बाद, उनकी खून से लथपथ ट्रेन जम्मू पहुँची और फिर वे पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन आए। उस समय स्टेशन के आसपास हजारों शरणार्थी तंबुओं में डेरा डाले हुए थे।

जगन्नाथ आजाद और पाकिस्तानी कौमी तराना
जगन्नाथ आजाद, जो पाकिस्तान के पहले कौमी तराना के लेखक थे, ने भी अपने परिवार के साथ दिल्ली में शरण ली। पाकिस्तान के बनने के बाद वे दिल्ली आ गए और पुल बंगश इलाके में रहने लगे। दिल्ली आकर उन्हें भी जीवन की नई शुरुआत करनी पड़ी।
दिल्ली में शरणार्थियों की कठिनाइयाँ
शरणार्थियों के सामने दिल्ली आने के बाद सिर छिपाने से लेकर पेट भरने की चुनौती थी। पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतरने के बाद, कई लोग सब्जी मंडी, करोल बाग, और दरियागंज जैसी जगहों पर छोटी-छोटी कोठरियों में रहने लगे। गुरुद्वारा सीसगंज और गौरी शंकर मंदिर ने उनके भोजन की व्यवस्था की, मगर उनके लिए छत पाना एक बड़ी चुनौती थी।
शरणार्थियों का संघर्ष और दिल्ली की नई पहचान
दिल्ली के विभिन्न इलाकों में शरणार्थियों ने अपनी जगह बनाई। सब्जी मंडी रेलवे स्टेशन पर उतरने वाले शरणार्थी आसपास के इलाकों में ठिकाना ढूँढते रहे। इनमें से कई परिवार ऐसे भी थे जिन्होंने एमडीएच मसाले जैसी बड़ी कंपनियों की नींव रखी। धर्मपाल गुलाटी, जिनका परिवार स्यालकोट से आया था, ने करोल बाग में अपना जीवन बनाया और दिल्ली के व्यापारिक और सांस्कृतिक जीवन में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
बंटवारे की यादें और दिल्ली का वर्तमान
दिल्ली में आने वाले शरणार्थियों की आमद ने शहर का मिजाज पूरी तरह से बदल दिया। इस बदलाव को महसूस करते हुए स्थानीय लोग भी शरणार्थियों के साथ सहयोग करते रहे। मगर, बंटवारे की यादें आज भी लोगों के दिलों में जिंदा हैं। लेखक और पत्रकार त्रिलोक दीप कहते हैं कि बंटवारे ने उन्हें गहरे घाव दिए थे और वे उसे याद करना नहीं चाहते। लेकिन, इस त्रासदी ने दिल्ली को एक नई पहचान दी और यहाँ के लोगों को एकजुट किया।
समाप्ति
75 वर्षों के बाद भी, पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन एक ऐसा स्थल है जहाँ पर इतिहास की गूँज आज भी सुनाई देती है। बंटवारे का दर्द और शरणार्थियों की कहानियाँ इस स्टेशन की हर ईंट में बसी हुई हैं। यह स्टेशन न केवल उस समय के संघर्ष की कहानी कहता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि कैसे इन संघर्षों ने दिल्ली को एक नई पहचान दी।




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