
जब “ऑपरेशन सिंदूर” नाम पहली बार सामने आया, तो हर ओर वीर रस का उफान आ गया। तस्वीरों में सिंदूर की डिब्बी लहराई गई, सोशल मीडिया पर देशभक्ति की लहर दौड़ी, और टीवी पर फिर से एक ‘सैन्य महाकाव्य’ का मंचन शुरू हो गया।
लेकिन जैसे-जैसे धूल बैठने लगी, और ऑपरेशन के तथ्यों की जगह भावनाओं का व्यापार बढ़ने लगा, तो एक सवाल उभरकर सामने आया —
क्या ये ऑपरेशन दुश्मन को मिटाने के लिए था या नितीश कुमार को सत्ता की डिबिया से बाहर फेंकने के लिए?
🪔 ‘सिंदूर’ का प्रतीक और उसका राजनीतिक इस्तेमाल
भारतीय समाज में ‘सिंदूर’ कोई साधारण शब्द नहीं। यह ‘समर्पण’, ‘मर्यादा’ और ‘संरक्षण’ का प्रतीक है। लेकिन जब इसे ऑपरेशन का नाम दिया गया, तो यह न केवल शौर्य का प्रतीक बन गया, बल्कि राजनीतिक भावनाओं को उभारने वाला ब्रह्मास्त्र भी।
जिस तरह से इसे प्रचारित किया गया, उससे ये साफ हुआ कि यह सिर्फ सीमाओं पर शौर्य नहीं था, बल्कि राजनीतिक रणभूमि पर भी रणनीति का हिस्सा था — खासकर बिहार में।
🏛️ नितीश कुमार: सत्ता का मंझा हुआ खिलाड़ी या अब राजनीतिक बोझ?
नितीश कुमार की राजनीति किसी आम पपइये जैसी रही है — कभी बहुत मधुर, कभी बेहद प्रभावशाली। लेकिन बार-बार सत्ता के पलड़े बदलते-बदलते आज वह आवाज़ अब थकी और फटी हुई सी लगने लगी है।
भाजपा जानती है कि अब उन्हें बिहार में न एक सहयोगी चाहिए, न समझौता। उन्हें चाहिए एक पूरी तरह नियंत्रित सत्ता — और इसके लिए नितीश की उपयोगिता समाप्त हो चुकी है।
🧩 ऑपरेशन सिंदूर और टाइमिंग का संयोग?
• ऑपरेशन सिंदूर की खबर सामने आई 6-7 मई की रात।
• 8-9 मई तक देशभर में वीर रस और गर्व का माहौल।
• और उसी सप्ताह बिहार में भाजपा की रणनीतिक गतिविधियां तेज़।
• फिर अचानक नितीश की सियासी पकड़ ढीली, सत्ता के समीकरण बदलने लगते हैं।
क्या ये सब केवल संयोग है?
या फिर ये एक सुनियोजित ‘भावनात्मक पृष्ठभूमि’ थी, जिसमें जनता का ध्यान सीमाओं पर केंद्रित करके, राज्य की राजनीति को चुपचाप नया आकार दिया गया?
🥁 पपइया और ऑपरेशन सिंदूर का अंत
शुरुआत में ‘ऑपरेशन सिंदूर’ एक भावनात्मक पपइये की तरह बजाया गया — मधुर, प्रेरणादायक। फिर उसे बार-बार बजाया गया — इतनी बार कि अब उसकी आवाज़ फटी हुई लगती है।
लोग अब झल्लाने लगे हैं। पपइया अब मनोरंजन नहीं, खीझ का कारण बन गया है।
उसी तरह नितीश कुमार की राजनीतिक पारी भी अब जनता के लिए प्रेरणा नहीं, थकावट का प्रतीक बनती जा रही है। न भाजपा को अब वो मधुर लगते हैं, न जनता को। और जब पपइया फट जाए, तो अंततः उसे फेंकना ही पड़ता है।
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लेखक – Praful Kumar